लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
जॉन सेवक-तुम
तो रोज वहाँ
जाते हो, क्यों
अपने साथ नहीं
लाते?
मिसेज सेवक-मुझे
इसकी चिंता नहीं
है। प्रभु मसीह
का द्रोही मेरे
यहाँ आश्रय नहीं
पा सकता।
प्रभु सेवक-गिरजे
न जाना ही
अगर प्रभु मसीह
का द्रोही बनना
है, तो लीजिए
आज से मैं
भी गिरजे न
जाऊँगा। निकाल दीजिए मुझे
भी घर से।
मिसेज़ सेवक-(रोकर) तो
यहाँ मेरा ही
क्या रखा है।
अगर मैं ही
विष की गाँठ
हूँ, तो मैं
मुँह के कालिख
लगाकर क्यों न
निकल जाऊँ। तुम
और सोफी आराम
से रहो, मेरा
भी खुदा मालिक
है।
जॉन सेवक-प्रभु,
तुम मेरे सामने
अपनी माँ का
निरादर नहीं कर
सकते।
प्रभु सेवक-खुदा
न करे, मैं
अपनी माँ का
निरादर करूँ। लेनिक मैं
दिखावे के धर्म
के लिए अपनी
आत्मा पर यह
अत्याचार न होने
दूँगा। आप लोगों
की नाराजी के
खौफ से अब
तक मैंने इस
विषय में कभी
मुँह नहीं खोला।
लेकिन जब देखता
हूँ कि और
किसी बात में
तो धर्म की
परवा नहीं की
जाती, और सारा
धार्मानुराग दिखावे के धर्म
पर ही किया
जा रहा है,
तो मुझे संदेह
होने लगता है
कि इसका तात्पर्य
कुछ और तो
नहीं!
जॉन सेवक-तुमने
किस बात में
मुझे धर्म के
विरुध्द आचरण करते
देखा?
प्रभु सेवक-सैकड़ों
ही बातें हैं,
एक हो तो
कहूँ।
जॉन सेवक-नहीं,
एक ही बतलाओ।
प्रभु सेवक-उस
बेकस अंधे की
जमीन पर, कब्जा
करने के लिए
आप जिन साधानों
का उपयोग कर
रहे हैं, क्या
वे धर्मसंगत हैं?
धर्म का अंत
वहीं हो गया,
जब उसने कहा
दिया कि मैं
अपनी जमीन किसी
तरह न दूँगा।
जब कानूनी विधानों
से, कूटनीति से,
धमकियों से अपना
मतलब निकालना आपको
धर्मसंगत मालूम होता हो;
पर मुझे तो
वह सर्वथा अधर्म
और अन्याय ही
प्रतीत होता है।
जॉन सेवक-तुम
इस वक्त अपने
होश में नहीं
हो, मैं तुमसे
वाद-विवाद नहीं
करना चाहता। पहले
जाकर शांत हो
जाओ, फिर मैं
तुम्हें इसका उत्तर
दूँगा।
प्रभु सेवक क्रोध
से भरा हुआ
अपने कमरे में
आया और सोचने
लगा कि क्या
करूँ। यहाँ तक
उसका सत्याग्रह शब्दों
ही तक सीमित
था, अब उसके
क्रियात्मक होने का
अवसर आ गया,
पर क्रियात्मक शक्ति
का उसके चरित्र
में एकमात्र अभाव
था। इस उद्विग्न
दशा में वह
कभी एक कोट
पहनता, कभी उसे
उतारकर दूसरा पहनता, कभी
कमरे के बाहर
चला जाता, कभी
अंदर आ जाता।
सहसा जॉन सेवक
आकर बैठ गए,
और गम्भीर भाव
से बोले-प्रभु,
आज तुम्हारा आवेश
देखकर मुझे जितना
दु:ख हुआ
है, उससे कहीं
अधिक चिंता हुई
है। मुझे अब
तक तुम्हारी व्यावहारिक
बुध्दि पर विश्वास
था; पर अब
विश्वास उठ गया।
मुझे निश्चय था
कि तुम जीवन
और धर्म के
सम्बंध को भलीभाँति
समझते हो; पर
अब ज्ञात हुआ
कि सोफी और
अपनी माता की
भाँति तुम भी
भ्रम में पड़े
हुए हो। क्या
तुम समझते हो
कि मैं और
मुझ-जैसे और
हजारों आदमी, जो नित्य
गिरजे आते हैं,
भजन गाते हैं,
ऑंखें बंद करके
ईश-प्रार्थना करते
हैं, धार्मानुराग में
डूबे हुए हैं?
कदापि नहीं। अगर
अब तक तुम्हें
नहीं मालूम है,
तो अब मालूम
हो जाना चाहिए
कि धर्म केवल
स्वार्थ-संगठन है। सम्भव
है, तुम्हें ईसा
पर विश्वास हो,
शायद तुम उन्हें
खुदा का बेटा
या कम-से-कम महात्मा
समझते हो, पर
मुझे तो यह
भी विश्वास नहीं
है। मेरे हृदय
में उनके प्रति
उतनी ही श्रध्दा
है, जितनी किसी
मामूली फकीर के
प्रति। उसी प्रकार
फकीर भी दान
और क्षमा की
महिमा गाता फिरता
है, परलोक के
सुखों का राग
गाया करता है।
वह भी उतना
ही त्यागी, उतना
ही दीन, उतना
ही धर्मरत है।
लेकिन इतना अविश्वास
होने पर भी
मैं रविवार को
सौ काम छोड़कर
गिरजे अवश्य जाता
हूँ। न जाने
से अपने समाज
में अपमान होगा,
उसका मेरे व्यवसाय
पर बुरा असर
पड़ेगा। फिर अपने
ही घर में
अशांति फैल जाएगी।
मैं केवल तुम्हारी
माता की खातिर
से अपने ऊपर
यह अत्याचार करता
हूँ, और तुमसे
भी मेरा यही
अनुरोध है कि
व्यर्थ का दुराग्रह
न करो। तुम्हारी
माता क्रोध के
योग्य नहीं, दया
के योग्य हैं।
बोलो, तुम्हें कुछ
कहना है?
प्रभु सेवक-जी
नहीं।
जॉन सेवक-अब
तो फिर इतनी
उच्छृंखलता न करोगे?
प्रभु सेवक ने
मुस्कराकर कहा-जी
नहीं।